31 दिसंबर 2012

तुझ से इतने से चमत्कार की दरख़्वास्त है बस - एक चिंतन

न जाने कब से कहा जा रहा था कि 21 दिसंबर 2012 को दुनिया तहस-नहस हो जायेगी। वैसा तो कुछ नहीं हुआ। मगर हाँ, हमारी अस्मिता, हमारी सभ्यता, हमारे संस्कार ज़ुरुर टुकड़ा-टुकड़ा हो गये। दामिनी के प्रसंग को ले कर तमाम हल्कों में अमूमन सब ही अपनी-अपनी राय ज़ाहिर कर रहे हैं। दर्ज़ किए गए मामलात को आधार बनाएँ तो हर 54वें मिनट में एक बलात्कार हो रहा है... इस तरह दर्ज़ न हो पाने वाले केसेस को भी अनुमानित आधार पर यानि दस गुना जोड़ें तो लगभग हर 5 मिनट में एक बलात्कार हो रहा है यानि हर दिन क़रीब-क़रीब 250। आँकड़ों के शोधकर्ता इसे अपने नज़रिये से यानि अरबों की जनसंख्या से जोड़ कर
देख सकते हैं मगर ऐसा एक भी मामला क्षम्य नहीं हो सकता। इस मामले के तुरंत बाद ही एक अनपेक्षित रिएक्शन देखने को मिला। संभव है रिएक्ट करने वाले लोगों को अपनी तकलीफ़ दामिनी के मामले में दिखाई दी हो। तकलीफ़ किसी भी तरह की हो सकती है। चार से दस गुना तक बढ़ चुके खर्चे झेलने वाले समाज की आय डेढ़-दो गुना भी न हो पाने वाली तकलीफ़ या फिर कसाब को ड्राइविंग लाइसेन्स इश्यू करने वाले तंत्र द्वारा आरिजिनल फोटो आय डी टिकट के साथ न होने पर ट्रेन से उतारने या भारी जुर्माना वसूलने पर होने वाली तकलीफ़। चिकित्सकीय पिंजड़ों में क़ैद गिनी पिग वाली तकलीफ़ या शिक्षा संबन्धित तमाम इकाइयों द्वारा हमारी आमदनी का बड़ा हिस्सा हड़पने के बावजूद हमारे बच्चों की नाकामी का ठीकरा हमारे सर फोड़ने पर उपजने वाली तकलीफ़। बलात्कार और विशेष कर उस के बाद हुई बर्बरता जन-सामान्य को अपनी अनुभूति के अधिक निकट महसूस हुई। जन साधारण दामिनी के माध्यम से अपना गुस्सा ज़ाहिर करने को आंदोलित हुआ। फ़ेसबुक पर भी तमाम लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी-अपनी वाल पर अपने-अपने विचार व्यक्त किए। उन में से कुछ 'अंश' यहाँ संकलित किए जा रहे हैं। इस साल नई साल को मुबारक करने की बजाय जो घटित हुआ है उस पर मनन, चिंतन करने का जी हो रहा है। दुष्यंत के शब्दों में कहूँ तो 

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं। 
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये
[दुष्यन्त कुमार]

रोने और सोचने का समय है
मैं तुम्हारे लिए रो रहा हूँ
और अपनी जिंदा बेटी के बारे में सोच रहा हूँ
पता नहीं कब तक रोता रहूँगा
पता नहीं कब तक सोचता रहूँगा
:- बोधिसत्व


तुम चली गयी दामिनी,
हम सब के मुँह पर थूक कर
जाना ही था तुम्हें।
हम कब से इसी काबलियत के साथ भटक रहे हैं।
आखिर कौन बचाता तुम्हे पुलिस के प्रपंच से,
अदालतों के जंजाल से,
वकीलों की अंतहीन दलीलों से,
समाज के दोगले चरित्र से,
नेताओं के दंभ से ,
धर्म की बेड़ियों, संस्कृति और हया की कैद से।
:- शमशाद इलाही 'शम्स'


मैं ना दामिनी , ना निर्भया ना कोई पीडिता
मैं एक वेदना हूँ ,एक प्रतीक हूँ
प्रतीक हूँ नारी के प्रति
समाज की कुंठित मानसिकता का ,
प्रतीक हूँ , हैवानों के वहशीपन का ,
मैं हूँ आप सब में एक, जैसे
और आप सब हैं एक , मुझ जैसे ।।
 :- वीरेंद्र जैन [वड़ोदरा]



मेरी आत्मा
लाइलाज बीमारी से जकडी
विवश खडी इंसानियत के मुहाने पर
 
गुहार लगा रही है इस नपुंसक सिस्टम से
मुझे भी कुछ पल सुकून से जीने दो
मेरी सडी गली कोशिकाओं को काट फ़ेंको
ये बढता मवाद कहीं सारे शरी्र को ही
नेस्तनाबूद न कर दे
उससे पहले
उस कैंसरग्रस्त अंग को काट फ़ेंकना ही समझदारी होगी
क्या आत्मा मुक्त हो सकेगी बीमारी से
इस प्रश्न के चक्रव्यूह मे घिरी
निरीह आँखों से देख रही है
लोकतंत्र की ओर
जनतंत्र की ओर
मानसतंत्र की ओर
क्या संभव है सुदृढ़ इलाज ??????????
:- वंदना गुप्ता


कभी शैतान गर इस बात की चर्चा करेगा
उसे भी शर्म आयेगी तुम्हे इंसान कह कर
 :- शेषधर तिवारी

चारागर ! कुछ तो बता दे मरहमों की आस में
कब तलक हम नाखूनों की नाज़ - बरदारी करें
:- आलम ख़ुर्शीद

नज़र के सामने जब हों दरिंदगी के वरक़,
कहूँ तो कैसे कहूँ मैं उन्हें ख़ुशी के वरक़.
हवसपरस्त ने दिल्ली का मर्तब: तोड़ा,
कि जिसने फूँक दिए कल नई सदी के वरक़.
ज़मान: ख़ुद ही बताएगा चल रहा है क्या,
मैं पढ़ रहा हूँ अँधेरों में रौशनी के वरक़.
- हृदयेश शुक्ल "हुमा" कानपुरी (भोपाल)


शब्दार्थ- 1. वरक़- पृष्ठ, 2. हवसपरस्त- कामलोलुप, 3. मर्तब: - प्रतिष्ठा


हवस के हाथों ने तितली के पर भी नोच लिए
बिना परों के फिजाओं में उड़ नहीं पाती
इसीलिए तो वो रुखसत हुई है दुनिया से
कि जिंदा रह के भी खुद से वो जुड़ नहीं पाती
:- अतुल अजनबी

 

रास्ते.. बंद कर दिए गए
रुकावटें.. बढ़ा दी गईं
क़दमों को.. रोक लिया गया
लेकिन चिराग़ - अब भी जल रहे हैं
सिर्फ़ हाथों में ही नहीं , दिलों में भी
सद्भावना के चिराग़, सच्चाई के चिराग़, हौसलों के चिराग़
आओ.. प्रार्थना करें...
इन चिराग़ों की लौ से बँधी उम्मीदें
पा जाएँ अपनी मंज़िल को
और मिल जाये इन्हें
स्नेह , सम्मान , सुरक्षा , और न्याय .....
:- दानिश भारती


आज आंखें नम हैं ,
दिल में गहरे गम हैं !

ना जाने वो थी "निर्भया" कोई,
या "अमानत" हमारी, जो चिर निद्रा में सोई !
 
वो तो थी "दामिनी " जो ज़माने से छली गई,
अब चाहे जो कहें हम, पर वो तो चली गई !

लो हार गई ज़िंदगी - लो हार गई बन्दगी
ना जाने किस ओर से - आई इतनी शर्मिन्दगी !!

जितना कहें कम है , 
हकीकत में -आज , आँखें नम हैं,
दिल में - गहरे गम हैं !!
:- श्री विद्येश

सन्दर्भ ख़ुशबुओं का वीरान हो रहा है
क्या क्या कहें चमन में क्या क्या न हो रहा है।
चलते हुए चरण हैं पर आचरण नहीं है
क्या जाने किस दिशा में अभियान हो रहा है।

-निषेध कुमार कटियार 'हलीम'
 


चिड़िया थी उत्साह में, सम्मुख था आकाश
किन्तु स्वप्न धूसर हुए, तार-तार विश्वास

क्या ही कुत्सित सोच थी, क्या कर्कश व्यवहार
मानव तन ज्यों पा गयी, निर्दयता आकार 
:- सौरभ पाण्डेय 

ऐसा क्यूँ है?
इस प्रश्न का उत्तर दुर्धर और अविश्वसनीय है
इसीलिए सब के सब
"क्या होना चाहिए"?
इस प्रश्न का उत्तर तलाशते हैं

लेकिन अब इस प्रश्न का उत्तर तलाश करने का समय आ गया है
कि इतने सारे धर्मग्रन्थ, नियम, कानून, उपदेश, साहित्य
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारे,
पूजा, आरती, प्रार्थना, अजान, नमाज
युगों युगों से होने के बावजूद
ऐसा क्यूँ है?
:- धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'

शर्मसार तो कर गया, जाने वाला साल
आने वाले साल में, कैसा होगा हाल 
:- विजेंद्र शर्मा

अभी और क्या-क्या दिखाएगी दिल्ली
तू गुल और क्या-क्या खिलाएगी दिल्ली
:- राजेन्द्र स्वर्णकार

कभी माँ तो कभी बीबी, कभी बेटी बहन बन कर
ये औरत है दिखा देती है हर इक रूप में ढल कर
इसे ज़िल्लत बहुत ज़्यादा, मुहब्बत कम ही मिलती है 
मगर करती है ये तुझ से वफ़ा, हर रंज़ोग़म सह कर 
ये तेरे पाँव की जूती नहीं, है हमसफ़र तेरी
ज़रूरत उस की तुझ को है, ज़रूरत है उसे तेरी 
बदल अपने नज़रिये को, कहीं ऐसा न हो नादाँ
बदलते वक़्त की औरत तेरा सब कुछ बदल डाले
:- याक़ूब आज़म

  
द्रवित मन परमपिता परमेश्वर से यही दरख़्वास्त करता है कि 

तुझ से इतने से चमत्कार की दरख़्वास्त है बस
सारे हैवानों को इंसान बना दे मालिक
आज ख़ुशबू की हवाओं को ज़ुरूरत है बहुत
अपनी रहमत के गुलाबों को खिला दे मालि

अंत में एक बार फिर सभी से करबद्ध विनम्र निवेदन है कि चिंतन-मनन के बाद अपने "सुविचार ही" संयत हो कर व्यक्त करें।

6 टिप्‍पणियां:

  1. भाई नवीनजी, आपने साल 2012 के आखिरी माह में हुई एक दुर्दांत घटना को आधार बना कर जिस संवेदना से आपने सामाजिक छटपटाहट को स्वर दिया है वह स्तुत्य है.

    हर नया क्षण व्यतीत क्षणों की पैदाइश होता है. नया वर्ष विगत वर्ष की कोख से पैदा होता है. उसी के गुण-धर्म लेता है. यह अवश्य है कि हम हर वर्ष अपने अनुभवों के लिहाज से कुछ और समृद्ध होते हैं. जो हो गया उसकी क्षतिपूर्ति कदापि संभव नहीं. परन्तु जो कुछ सार्थक बचा हुआ है जिसके आधार पर कल संयत वातावरण संभव है, क्यों न उसे अक्षुण्ण रखने का हर संभव सद्-प्रयास हो !


    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  2. पाशविकता और बर्बरता तो हर हाल में ही निंदनीय है... हर काल खंड में इसकी विवेचना भी होती रही है,,और आलोचना भी ... लेकिन आवश्यक है तो आत्म-निरिक्षण .
    हमें स्वयं को ही अपने प्रति , अपने समाज का प्रति , और अपने राष्ट्र के प्रति सचेत और जिम्मेदार बनाना होगा ...
    संस्कार और सभ्यता की रक्षा और पोषण हमें स्वयं ही करना होगा ... इसी पावन प्रक्रिया को निभाते हुए ही हम उन्नत एवं सभ्य परिवेश की कामना और अपेक्षा कर सकते हैं ... ऐसे पवित्र उद्देश्य के लिए आपका समर्पण और प्रयास प्रशंसनीय हैं , अनुकरणीय है .

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  3. चिरनिद्रा में सोकर खुद,आज बन गई कहानी,
    जाते-जाते जगा गई,बेकार नही जायगी कुर्बानी,,,,

    recent post : नववर्ष की बधाई

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  4. नववर्ष की ढेरों शुभकामना!
    आपकी यह सुन्दर प्रविष्टि आज दिनांक 01-01-2013 को मंगलवारीय चर्चामंच- 1111 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  5. Damini ka daaman dekho daagdaar ho gaya,
    munsifon ki bheed mein par guneh-gaar kho gaya,

    Majme, dharne, jalse, juloos aur jhoothe ashwasan,
    shatiron aur kam-jarfon ka ye karobaar ho gaya,

    Bhare sahar dekho uski lut gaye hai aabroo,
    laaz ka parda ye dekho taar taar ho gaya,

    Ma, patni beti bahan, sab tere hi roop hain,
    dekh teri ye dasha dil sharm saar ho gaya

    Damini ki wo chita kabki hai thndi ho chuki,
    jehen mein sabke wo sulagta ek angaar ho gaya

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