31 अगस्त 2012

मैं वज्ह पूछ ही न सका बेवफ़ाई की - नवीन

बोनसाई / Bonsai Tree

मैं वज्ह पूछ ही न सका बेवफ़ाई की
थी रस्म आज उस के यहाँ मुँह-दिखाई की

क़ातिल बता रहा है नज़र है क़ुसूरवार
किस वासते है उस को ज़ुरूरत सफ़ाई की

हर ज़ख्म भर चुका है मुहब्बत की चोट का
मिटती नहीं है पीर मगर जग-हँसाई की

पहले तो दिल ने आँखों को सपने दिखाये थे
फिर हसरतों ने दिल की मुसीबत सवाई की

बहती हवाओ तुमसे गुजारिश है बस यही
इक बार फिर सुना दो बँसुरिया कन्हाई की

छोटे से एक पौधे का रुतबा दरख़्त सा
इनसाँ की ज़िन्दगी है कथा बोनसाई की

इल्मोहुनर को ले के वो जायें भी तो कहाँ
इस दौर में है माँग पढ़ाई-लिखाई की

उन को तो बस कमाना है तस्वीर बेच कर
तस्वीर हो फ़क़ीर की या आतताई की

मेरे बयान दौर की मुश्किल का हैं सबब
इनमें तलाशिये न झलक पंडिताई की

मखमल का बिस्तरा भी लगे है अज़ीब सा
जब याद आये गाँव-गली-चारपाई की

: नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ़ महजूफ
मफ़ऊलु फ़ाएलातु मुफ़ाईलु फ़ाएलुन

२२१ २१२१ १२२१ २१२

8 टिप्‍पणियां:

  1. उन को तो बस कमाना है तस्वीर बेच कर
    तस्वीर हो फ़क़ीर की या आतताई की

    बाजारवाद पर अच्छा व्यंग्य

    छोटे से एक पौधे का रुतबा दरख़्त सा
    इनसाँ की ज़िन्दगी है कथा बोनसाई की

    बहुत सही कहा आपने

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  2. वाह....
    बहुत बढ़िया....
    हर रंग के..हर ढंग के शेर...
    लाजवाब..

    सादर
    अनु

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  3. छोटे से एक पौधे का रुतबा दरख़्त सा
    इनसाँ की ज़िन्दगी है कथा बोनसाई की... वाह

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  4. बहुत बहुत बधाई, खूबसूरत ग़ज़ल!

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  5. बहुत ही सामयिक अशआर...उम्दा ग़ज़ल...

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  6. आखिरी शेर ने तो मोह लिया नवीन भाईजी. और बोनसाई का क्या ही सुन्दर प्रयोग हुआ है.. ! हृदय से बधाई कह रहा हूँ.

    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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