18 अगस्त 2012

दोहा ग़ज़ल - कारण झगड़े का बनी, बस इतनी सी बात - नवीन


खिलता हुआ गुलाब / Opening Lotus Flower
कारण झगड़े का बनी, बस इतनी सी बात
हमने माँगी थी मदद, उसने दी ख़ैरात

किया चाँद ने वो ग़ज़ब, पल भर मुझे निहार
दिल दरिया को दे गया, लहरों की सौगात

कहाँ सभी के सामने, कली बने है फूल
तनहाई में बोलना, उस से दिल की बात

सर पर साया चाहिये ? मेरा कहना मान
हंसा को कागा बता, और धूप को रात

आँखों को तकलीफ़ दे, डाल अक़्ल पर ज़ोर
हरदम ही क्या पूछना, मौसम के हालात

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

दोहा ग़ज़ल के बारे में सुना था। कुछ एक दोहा ग़ज़लें पढ़ी भी थीं। अग्रजों से बात भी की। दो मत सामने आये। पहला मत - हर दो पंक्तियाँ बिलकुल दोहे के समान ही हों। यदि ऐसा करें तो फिर ग़ज़ल कहाँ हुई, वो तो दोहे ही रहे। दूसरा मत ये कि शिल्प दोहे का लें और ग़ज़ल के माफ़िक़ पहले दोहे [मतले] के बाद के ऊला-सानी टाइप दोहे [शेर] कहे जाएँ। पहले मत वालों को पूर्ण सम्मान परन्तु मुझे दूसरा मत अधिक उचित लगा। तो मेरा यह पहला प्रयास दोहा ग़ज़ल के माध्यम से आप के समक्ष है, आप की राय का इंतज़ार रहेगा। 



सभी मित्रों को ईद की हार्दिक शुभकामनायें............................ 

17 टिप्‍पणियां:

  1. तकनीकी राय देने दे लायक तो नहीं हूँ...हां रोचक प्रस्तुति रोचक प्रयोग है ..
    सुन्दर!!

    सादर
    अनु

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  2. कल 19/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. भाई नवीनजी, दोहा-ग़ज़ल के बारे में मैं वस्तुतः कुछ नहीं जानता हूँ/था. यह अवश्य है कि अपनी ज़मीन और शिल्प के कारण दोहे अन्य सनातनी छंदों के बनिस्पत ग़ज़लकारों के लिये विशेष पसंद रहे हैं. अक्सर ज़मीनी ग़ज़लकारों या शायरों ने दोहा-छंदों पर हाथ आज़माया है.

    लेकिन दोहा-ग़ज़ल मेरे लिये एक नयी विधा है. और सही मानिये, मुझे भी यह विधा रोचक लगी है. दूसरे, सही किया आपने कि इस विधा के उल्लेख्य दूसरे रूप को आपने अंगीकार किया है. अन्यथा इसका पहला रूप हुस्नेमतलाओं की बाढ़ बन जाता. ऊपर से पद्य विधा के लिहाज़ से उसकी अपनी सीमाएँ हैं.

    अब आपकी प्रस्तुति पर -

    झगड़े का मुद्दा बनी, बस इतनी सी बात
    हमने माँगी थी मदद, उसने दी ख़ैरात

    मतला दोहा.. अहाहा ! समृद्ध तथ्य पर क्या ग़ज़ब की कहन है. बहुत खूब, बहुत खूब !

    किया चाँद ने वो ग़ज़ब, पल भर मुझे निहार
    दिल-दरिया को दे गया, लहरों की सौगात

    वाह - वाह ! चाँद का निहारना और लहरों की आवृतियों का बढ़ना. दिल-दरिया का सटीक प्रयोग हुआ है.

    कहाँ सभी के सामने, कली बने है फूल
    तनहाई में बोलना, उस से दिल की बात

    देह के सम्पूर्ण विस्तार में झुरझुरी लहर गयी ! वाह .. :-))))

    सर पर साया चाहिये ? मेरा कहना मान
    हंसा को कागा बता, और धूप को रात

    चारण की यह नयी व्याख्या ह्रुदय को छू गयी, नवीन भाई.

    आँखों को तकलीफ़ दे, डाल अक़्ल पर ज़ोर
    हरदम ही क्या पूछना, मौसम के हालात

    ग़ज़ल की तेवर का दोहा बन पड़ा है, यानि सीधा संवाद. और संवाद भी क्या पूरी टकसाली ज़ुबान में ..

    नवीन भाई, एक मनोहारी और समृद्ध राह प्रशस्त करने के लिये आपका हार्दिक धन्यवाद. इस नवीन विधा को साझा करने मैं आपका आभारी हूँ.

    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  4. धीरे-धीरे ही बदलेंगे दुनिया के हालात.
    धीरे-धीरे दिन निकलेगा ढल जाएगी रात.

    भाई नवीन जी! आपकी दोहा ग़ज़ल पढने के बाद उसी ज़मीन पर एक शेर निकल आया. आपको नज्र करता हूँ. दोहा ग़ज़ल की जो अवधारणा आपने अपनाई है वह बिलकुल सही और सटीक है. इसमें ग़ज़ल और दोहा दोनों का स्वाद है. इसे विकसित किये जाने का मैं समर्थन करता हूँ. एक कामयाब पहल के लिए आपको बधाई देता हूँ.

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  5. दोहा गज़ल के सम्बन्ध में दूसरा मत मुझे भी उचित लगा वरना लगता था कि सबसे लंबी गज़ल बिहारी जी (सतसैया )ने ही लिखी होगी ...बहुत बहुत धन्यवाद एक और बढ़िया गज़ल के लिये

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  6. तकनीकी बात नहीं जानता , लेकिन अच्छी रचना है ,बधाई

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  7. रचना तो बहुत ही बढ़िया है...
    बाकी नियम तो मै भी नहीं जानती....
    :-)

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  8. अच्छा प्रयोग है। आपसे सहमत हूँ। सुंदर दोहा ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें।

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  9. वाह ! बेह्तरीन...

    कुछ नया ही पढ़ा और सिखा दिया आपने तो...धन्यवाद

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  10. शब्द सुघड़ कर ढाल दिये हैं, करने बैठे बात।

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  11. दोहा गजल .... नयी विधा की जानकारी मिली ... बहुत खूबसूरत

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  12. ईद की मुबारकबाद
    किया चाँद ने वो ग़ज़ब, पल भर मुझे निहार
    दिल-दरिया को दे गया, लहरों की सौगात
    बहुत ही सुन्दर दोहा.... वाह वाह

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  13. .


    मित्रवर नवीन चतुर्वेदी जी
    सस्नेह नमस्कार !

    आपकी रचनाएं हमेशा आकर्षित करती हैं … आभार !

    कहाँ सभी के सामने, कली बने है फूल
    तनहाई में बोलना, उस से दिल की बात

    वाऽऽहऽऽ… !
    लाजवाब !!

    आपने उचित फ़ैसला किया …

    मैंने भी प्रयोग के तौर पर दो-चार दोहा-ग़ज़ल लिखी हैं …
    आपकी तरह मैंने भी दूसरे मतानुरूप दोहे का शिल्प ले'कर ग़ज़ल के माफ़िक़
    पहले दोहे [मतले] के बाद के ऊला-सानी टाइप दोहे [शेर] कहे हैं …

    (इस ग़ज़ल के साथ-साथ कुछ पुरानी पोस्ट्स … जो देखने से रह गई थीं; भी देखी है अभी …
    … बधाई !)

    …आपकी लेखनी से सुंदर रचनाओं का सृजन होता रहे, यही कामना है …
    शुभकामनाओं सहित…

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  14. देर से...

    नवीन जी ग़ज़ल तो सुन्दर गैर रदीफ़ ग़ज़ल है ही.....
    ---जहां तक दोहा ग़ज़ल की बात है ...सभी ग़ज़ल दोहा ग़ज़ल ही होती हैं....क्योंकि शेर स्वयं दोहे का उर्दू रूप है.... अरबी-फारसी में शेर को दोहा ही कहा जाता है .....

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  15. आ. श्याम जी आप के सुविचारों का स्वागत है।

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