29 जून 2011

नवरस ग़ज़ल

नवरस ग़ज़ल

नया काम




नवरस ग़ज़ल

ग़ौर से सुनिये तो हर पल गुनगुनाती है हयात1।
हर घड़ी एक रूप धर कर गीत गाती है हयात॥
1ज़िन्दगी
*
शृंगार रस:-
दिल के दरिया में कनखियों की कँकरिया डाल कर।
इश्क़ के सोये हुये अरमाँ जगाती है हयात॥
*
हास्य रस:-
इश्क़ हो जाये रफ़ू-चक्कर झपकते ही पलक।
जब छरहरे जिस्म को गुम्बद बनाती है हयात॥
*
करुण रस:-
उन को भी भर पेट खाना मिल सके बस इसलिये।
बाल-मज़दूरों से मज़दूरी कराती है हयात॥
*
रौद्र रस:-
काम मिल जाये तो अच्छे दाम मिल पाते नहीं।
अक्सर इस पेचीदगी पर तमतमाती है हयात॥
*
वीर रस:-
पहले तो शाइस्तगी2 से माँगती है अपना हक़।
जब नहीं मिलता है हक़ - शमशीर3 उठाती है हयात॥ 
2 विनम्रता 3 तलवार
*
भयानक रस:-
क्या भयानक रूप दिखलाती है कोठों पर हहा!!
बेटियों की चीख पर ठुमके लगाती है हयात॥
*
वीभत्स रस:-
आदमी को भूनती है वक़्त के तन्दूर में।
हाय कैसा खाना, खाती है खिलाती है हयात॥
*
अद्भुत रस:-
एक बकरी दर्जनों शेरों पे हावी है जनाब।
देख लो सरकार! क्या क्या गुल खुलाती है हयात॥
*
शांत रस:-
बस्तियों की हस्तियों की मस्तियाँ ढो कर 'नवीन'।
आख़िर-आख़िर शान्त हो कर गीत गाती है हयात॥





















हाथ में 'आटा' लिए, जो गुनगुनाये ज़िंदगी|
देख कर यूँ दिलरुबा को मुस्कुराये ज़िंदगी|१|

क्षृंगार रस:-
कनखियों से देखना - पानी में पत्थर फेंकना|
काश फिर से वो ही मंज़र दोहराये ज़िंदगी|२|

हास्य रस:-
इश्क़ हो जाये रफू चक्कर झपकते ही पलक|
जब छरहरे जिस्म को गुम्बद बनाये ज़िंदगी|३|

करुण रस:-
दिन को मजदूरी, पढ़ाई रात में करते हैं जो|
देख कर उन लाड़लों को, बिलबिलाये ज़िंदगी|४|

रौद्र रस:-
भावनाओं के बहाने, दिल से जब खेले कोई|
देख कर ये खेल झूठा, तमतमाये ज़िंदगी |५|

वीर रस:-
जब हमारे हक़ हमें ता उम्र मिल पाते नहीं |
दिल ये कहता है, न क्यूँ खंज़र उठाये ज़िन्दगी |६|

भयानक रस:-
जिस जगह पर, चीख औरत की, खुशी का हो सबब|
बेटियों को उस जगह ले के न जाये ज़िंदगी |७|

वीभत्स रस:-
आदमी को आदमी खाते जहाँ पर भून कर |
उस जगह जाते हुए भी ख़ौफ़ खाये ज़िंदगी |८|

अद्भुत रस:-
एक बकरी दर्जनों शेरों पे हावी है 'नवीन'|
देखिए सरकार! क्या क्या गुल खिलाये ज़िंदगी|९|

शांत रस:-
बस्तियों की हस्तियों की मस्तियों को देख कर|
दिल कहे अब शांत हो कर गीत गाये ज़िंदगी|१०|


 फालातुन फालातुन फालातुन फाएलुन 
2122 2122 2122 212 
बहरे रमल मुसमन महजूफ

27 जून 2011

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - बन्नो के हैं आभूषण-परिधान भ्रष्टाचार

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

दो नौजवान कवियों के छन्द पढ़ने के बाद, इस आयोजन के नौवें चक्र में आज हम पढ़ेंगे आदरणीय श्री बृजेश त्रिपाठी जी के छंदों को| इस पोस्ट के साथ इस आयोजन के कवियों की संख्या हो गई ११ और घनाक्षरी छंदों की संख्या हो गई ३०|

आदरणीय श्री बृजेश त्रिपाठी जी को इस मंच पर हम पहले भी पढ़ चुके हैं| जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में कहा था कि कवि की कल्पना अथाह सागर की भांति होती है, उसी को चरितार्थ करते हैं आप के छन्द| अनुभवी निगाहें, बात में से कैसे बात निकाल लेती हैं, इस का अच्छा उदाहरण दे रहे हैं आप| हालाँकि रस परिवर्तन जैसी कुछ रियायतें ली हैं आपने, परन्तु उम्र को दरकिनार करती छन्द साहित्य की सेवा और विषय की विशिष्टता उसे ढँक देती है| आइये पढ़ते हैं - भ्रष्टाचार पर निशाना साधते इन के छंदों को:-




साधु-संतो-योगियों पे, कीजिये न अत्याचार,
संतों से ले कर सीख, भ्रष्टता मिटाइए|

सोती हुई जनता पे, लाठियाँ चलाते हुए,
थोडा थमिएगा, थोडा - सा तो शरमाइए|

काले धन की वापसी - पे हैरानी होती है क्यों,
काले धन को वापस, देश में ही लाईये|

खुद ही जो दोषी हों तो, करें प्रायश्चित आप,
राजनीति का अखाडा, घर न बनाईये||

[सम सामयिक विषय पर दो टूक बात कही है आपने| काले धन की वापसी
होनी ही चाहिए| और 'खुद ही दोषी हों' वाली बात तो क्या कहने|
नीतिगत विषय पर उम्दा प्रस्तुति]


ऊबड़-खाबड़ चाँद - से न तुलना करो जी
जानिए कि उसने क्यों - खुद को छिपाया है|

कहाँ सदरीति, कहाँ - रूखा-सूखा निशापति,
तुलना की कल्पना से, व्योम घबड़ाया है|

लाठी - गोली - आँसू-गैस, सारे हथकंडे फेल,
ब्यूटी-कम्पटीशन में, वो हड़बड़ाया है|

जग की अनीति पे तू, भारी सदा सदरीति
देख तेरी सुन्दरता, चाँद भी लजाया है||

[ओहो, इस पंक्ति को ले कर इस तरह की प्रस्तुति!!! है न अनुभव वाली बात!!!!
वाकई सदरीति की भला क्या तुलना रूखे सूखे निशापति से| रस-विषय
परिवर्तन जो थोड़ा सा है भी, विशिष्टता को ले कर आया है|
'ब्यूटी कम्पटीशन' का बहुत ही मनोहारी प्रयोग किया है
आपने, बधाई के पूरे पूरे हकदार हैं आप]


बन्नो सरकारी वेश-भूषा में सुन्दर लगे,
बन्ने का तो भेष ही, रोचक समाचार है|

बन्नो के हैं आभूषण-परिधान भ्रष्टाचार,
बन्ने का तो भगवा दुपट्टा कंठहार है|

बन्नो शरमीली, मुँह - ढाँपे फिरे दशकों से,
बन्ने का तो ऊँचा स्वर एक इश्तहार है|

बन्नो खिसियाई बिल्ली, खम्भा नोचने में लगी,
बन्ने का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||

[ हास्य रस पर केन्द्रित इस पंक्ति पर आपने गज़ब की
व्यंग्यातमक प्रस्तुति दी है| कवि की कल्पना है भाई]


जहाँ चाह, वहाँ राह| कवि ठाने, तो कल्पनाएं खुद-ब-खुद चल कर आती हैं उस के पास| रूपक और उपमाएँ हाजिर रहती हैं उस के दरबार में| विषय - कल्पना - व्याकरण - रस - छन्द -अलंकार वगैरह का संसार बहुत बड़ा है| आलोचक और समीक्षक अभी भी उस पर काम कर रहे हैं, निष्कर्ष प्रतीक्षारत है :)| परिवर्तन संसार का अकाट्य नियम है|

छंदों को सिर्फ एक फॉर्मेट / उपकरण मानते हुए, यदि उन पर समय के अनुसार हम लोग अच्छे, तार्किक और जन-साधारण को रुचिकर प्रयोग करते रहेंगे, तो इन छंदों को अगली पीढ़ियों तक 'सहज-स्वीकृत' रूप में पहुँचा पाएंगे, अन्यथा सत्य हम सब जानते ही हैं|

आदरणीय त्रिपाठी जी के इन अनमोल छंदों का रस पान करने के साथ साथ इन पर अपनी टिप्पणी रूपी पुष्प वर्षा आप को करनी है और हमें तैयारी करनी है एक और हिलाऊ टाइप पोस्ट की|

कुछ और मित्रों ने भी छन्द भेजे हैं, उन की लगन और दृढ़ इच्छा शक्ति को प्रणाम| व्यस्तता वश उत्तर पेंडिंग हैं, पर जल्द ही ये काम भी शुरू किया जायेगा| तब तक उन सभी मित्रों से निवेदन है कि इस आयोजन की घनाक्षरी छन्द संबन्धित अब तक की सभी पोस्ट पढ़ें, घोषणा वाली पोस्ट को बार बार पढ़ें, दी गईं औडियो लिंक्स को बार बार सुनें, इस से हमारा और उन का - दोनों का काम काफी आसान हो जाएगा| उन की आसानी के लिए सारी की सारी लिंक्स एक बार फिर से यहीं इसी पोस्ट में नीचे दी गई हैं|


इस आयोजन को आप लोगों द्वारा प्रदत्त सहयोग के लिए बहुत बहुत आभार| मित्रो, कभी कभी ठाले-बैठे भी देख लिया करो, भाई कवि हैं हम भी तो, आप की राय की प्रतीक्षा हमें भी रहती है|


जय माँ शारदे!

23 जून 2011

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - घुंघटे की तिजोरी में बंद सरमाया है

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


आज पोस्ट लिखते हुए गुरुजी [स्व. 'प्रीतम' जी] की बहुत याद आ रही है| वो अक्सर कहते थे, दूसरों को उन की गलतियाँ बताना जितना जरूरी है, उस से हजार गुना ज्यादा जरूरी है उन की अच्छाइयों को सारे जमाने के साथ शेयर करना|

पिछली पोस्ट में हम ने धर्मेन्द्र भाई के बेजोड़ छंदों का आनंद उठाया| आज की पोस्ट में मिलते हैं एक नौजवान शायर / कवि से| शायर इसलिए कि ये गज़लों पर ही ज्यादा बातें करते रहे हैं, और कवि इसलिए कि इन्होंने छन्द भी भेजे हैं| फ़ौज़ में हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि इन के छंदों में देशभक्ति ज्यादा है|




सीमा पार से जो हो रहा है उग्रवाद अभी,
उस पर आपकी तवज्जो अभी चाहिए|

नेता, मंत्री, सांसद जी आपसे है इल्तिजा ये,
देश के ही लोगों में तो दोष न गिनाइये|

चंद वोटों के लिए न आपस में लड़िए जी,
भाई भाई को तो आपस में न लड़ाइये|

मुल्क अपना ये घर कहता है आर पी ये,
राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइये||

[वाह आर. पी., इस पंक्ति पर बेहतरीन प्रस्तुति| जियो मित्तर जियो| टी वी वाले छंद
पढे, घर गृहस्थी वाले छंद पढे और अब ये देश भक्ति
वाला छंद| बहुत खूब]



बड़ा धनवान और पूंजीपति है वो बड़ा,
तेरे जैसा महबूब जिसने भी पाया है |

पागल बनाया कितनों की है उडाई नींदें,
कितनों का सुख चैन तुमने चुराया है |

लाखों हैं लुटेरे यहाँ लूट लें न इसीलिए,
घुंघटे की तिजोरी में बंद सरमाया है |

इतराता था जो कभी अपनी सुंदरता पे,
देख तेरी सुंदरता चाँद भी लजाया है||

['घुंघटे की तिजोरी में बंद सरमाया' हाए हाए हाए, क्या कल्पना
है भई वाह| घनाक्षरी में शायरी की खूबसूरती,
क्या कहने| ]



डेढ़ फुटिया बन्ना भी चला ब्याह करने को,
उसको भी घोड़ी चढने का अधिकार है |

आइना भी डर जाये बन्नो की सूरत देख,
कहे मुझ पर हुआ भारी अत्याचार है |

भेंगी आँख, टेढ़ी नाक, हाथी जैसे कान लिए,
वरमाला थामे बन्नो कब से तैयार है |

गोंद में ही वरमाला पहनानी पड़ी क्यूंकि,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुबमीनार है||

[आईने पर अत्याचार - ओहो, और गोद में वरमाला -
वाह क्या तीर खींच के मारा है, ये डेढ़ फूटिया
भी खूब ढूँढ के निकाला है]

कवि की कल्पना एक अथाह सागर की तरह होती है| माँ शारदे किस से क्या लिखवा दें, कुछ भी पहले से तय नहीं होता| बस इसी तरह साहित्य सृजन चलता रहा है, चल रहा है, चलता रहेगा - कोई माने या न माने| लीक से हट कर चलने वाले कवि / शायरों को इसीलिए तो ज़माना याद करता है भाई| वर्तमान समय की बारीकियों को समझते हुए शायद इसीलिए भाई मयंक अवस्थी जी ने लिखा होगा "अगर साहित्य का मूल्यांकन उस के कला पक्ष पर किया जाये, तो तुलसी से अधिक कालिदास प्रासंगिक होते"|

तो सुधि पाठको, आप सभी आर. पी. के मस्त मस्त छंदों का आनंद लें, और टिप्पणियाँ भी ज़रूर दें|

फिर मिलते हैं अगले हफ्ते अगली पोस्ट के साथ|

जय माँ शारदे!

20 जून 2011

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - होंठ जैसे शहद में, पंखुड़ी गुलाब की हो

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


घनाक्षरी छन्द पर आयोजित चौथी समस्या पूर्ति के इस सातवें चक्र में भी पढ़ते हैं एक इंजीनियर कवि को| इंजीनियर होने के नाते शब्दों की साज़-सज्जा काफ़ी बेहतरीन किस्म की करते हैं ये| छन्दों के प्राचीन प्रारूप को सम्मान देते हैं और नई-नई बातों को बतियाते हैं| आइए पढ़ते हैं इन के द्वारा भेजे गये छन्द:-





देवरानी मोबाइल, ले कर है घूम रही,
भतीजी ने सूट लिया, दोनों मुझे चाहिये|

सासू जी ने खुलवाया, नया खाता बचत का,
और ज्यादा नहीं मेरा, मुँह खुलवाइये|

ऐश सब कर रहे, हम यहाँ मर रहे,
बोल पड़ा मैं तुरंत, चुप रह जाइये|

सब अपने ही लोग, रहें खुश चाहता मैं,
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइये||

[एकता कपूर उर्फ छोटे पर्दे की दादी अम्मा और टी. वी. महारानी की इस युग की विशेष
मेहरबानी रूप घर घर की कहानी कैसे कैसे गुल खिला रही है - इस का बहुत ही अच्छा
उदाहरण देखने को मिलता है इस छन्द में| छंदों को जन-मानस से जुडने के लिए
उन की बातें बतियाना बहुत जरूरी है]


आँख जैसे रोशनाई डल-झील में गिरी हो,
गाल जैसे गेरू कुछ दूध में मिलाया है|

केश तेरे लहराते जैसे काली नागिनों को,
काले नागों ने पकड़, अंग से लगाया है|

होंठ जैसे शहद में, पंखुड़ी गुलाब की हो,
पलकों ने बोझ, सारे - जहाँ का उठाया है|

कोई उपमान नहीं, तेरे इस बदन का,
देख तेरी सुंदरता चाँद भी लजाया है||

[रूपक व उपमा जैसे अलंकारों से सुसज्जित इस छन्द की जितनी तारीफ की जाए कम है|
डल-झील, गेरू-दूध के अलावा पलकों ने सारा बोझ वाली बातों के साथ यह घनाक्षरी
किस माने में किसी रोमांटिक ग़ज़ल से कम है भाई? आप ही बोलो...]


सूखा-नाटा बुड्ढा देखो, चला ब्याह करने को,
तन को करार नहीं, मन बेकरार है|

आँख दाँत कमजोर, पाजामा है बिन डोर,
बनियान हर छोर, देखो तार-तार है|

सरकता थोड़ा-थोड़ा, मरियल सा है घोडा,
लगे ज्यों गधा निगोड़ा, गधे पे सवार है|

जयमाल होवे कैसे, सीढ़ी हेतु हैं न पैसे,
बन्नो का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||

[करार-बेकरार, कमजोर-बिन डोर-हर छोर, थोड़ा-घोड़ा-निगोड़ा और कैसे-जैसे शब्द प्रयोगों
के साथ आपने अनुप्रास अलंकार की जो छटा दर्शाई है, भाई वाह| जियो यार जियो]

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और अब बारी है उस छन्द की जिस का मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार था| श्लेष अलंकार को लक्ष्य कर के आमंत्रित इस छंद में कवि ने 'नार' शब्द के जो दो अर्थ लिए हैं वो हैं [१] गर्भनाल, और [2] कमलनाल| छन्द क्यों विशेष लगा इस बारे में बाद में, पहले पढ़ते हैं इस छन्द को|


'पोषक' ये खींचती है, तन को ये सींचती है,
द्रव में ये डूबी रहे, किन्तु कभी गले ना|

जोड़ कर रखती है, जच्चा-बच्चा एक साथ,
है महत्वपूर्ण, किन्तु - पड़े कभी गले ना|

जब तक साथ रहे, अंग जैसी बात रहे,
काट कर हटा भी दो, तो भी इसे खले ना|

पहला-पहला प्यार, दोनों पाते हैं इसी से,
'शिशु' हो या हो 'जलज', "नार" बिन चले ना||

[अब देखिये क्या खासियत है इस छन्द की| पहले आप इस पूरे छन्द को (आखिरी चरण
को छोड़ कर) गर्भनाल समझते हुए पढ़िये, आप पाएंगे - कही गई हर बात इसी अर्थ का
प्रतिनिधित्व कर रही है|दूसरी मर्तबा आप इसी छन्द को कमलनाल के बारे में समझते
हुए पढ़िये, आप पाएंगे यह छन्द कमलनाल के ऊपर ही लिखा गया है| यही है जादू
इस विशेष पंक्ति वाले छन्द का| इस प्रस्तुति के पहले वाले छन्द भी श्लेष पर हैं,
पर यह छन्द पूरी तरह से सिर्फ एक शब्द के अर्थों में ही भेद करते हुए श्लेष का
जादू दिखा रहा है| इसके अलावा इस छन्द में एक और चमत्कार है| 'गले ना'
शब्द प्रयोग दो बार है| एक बार उस का अर्थ है 'गर्भनाल / कमलनाल द्रव
में रहते हुए भी गलती नहीं है', और दूसरा अर्थ है 'गले नहीं पड़ती'|
है ना चमत्कार, यमक अलंकार का? इस अद्भुत प्रस्तुति
के लिए धर्मेन्द्र भाई को बहुत बहुत बधाई]

जय हो दोस्तो आप सभी की और अनेकानेक साधुवाद आप लोगों के सतप्रयासों हेतु| धर्मेन्द्र भाई के छंदों का आनंद लीजिये, टिप्पणी अवश्य दीजिएगा| जिन कवि / कवियात्रियों के छन्द अभी प्रकाशित होने बाकी हैं, यदि वो उन में कुछ हेरफेर करना चाहें, तो यथा शीघ्र करें| जिन के छन्द प्रकाशित हो चुके हैं, वो फिर से छन्द न भेजें|

जय माँ शारदे!

नवगीत - लुप्त हों न पलाश

Palash


लुप्त हों न पलाश

बिन तुम्हारे होलिका त्यौहार
था इक कल्पना भर
हाट में बाक़ायदा
तुम स्थान पाते थे बराबर

अब कहाँ वो रंग
वो रंगीन भू-आकाश
लुप्त हों न पलाश



'मख-अगन' सा दृष्टिगोचर
है तुम्हारा यह कलेवर
पर तुम्हारे पात नर ने
वार डाले बीडियों पर


गाँव तो सब जानते हैं
नगर समझें काश
लुप्त हों न पलाश




शब्दों के अर्थ

हाट = बाजार
मख-अगन = हवन की अग्नि
कलेवर = शरीर
पात = पत्ते / पत्तियाँ

18 जून 2011

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद, कर जोड़

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


कल अचानक ही बैठे बैठे मन में ख़्याल आया क्यूँ न ब्लॉग के फ़ॉर्मेट में कुछ फेरफार किया जाए| फिर क्या, लग पड़ा, और जो परिवर्तन हुए आप के समक्ष हैं| ब्लॉग के दाएँ-बाएँ वाली पट्टियों को देख कर अपनी राय अवश्य दें| "ई- क़िताब" तथा ठाले-बैठे ब्लॉग की 200वीं पोस्ट पर आप लोगों की प्रतिक्रियाएँ पढ़ कर उत्साह में अभिवृद्धि हो रही है|

समस्या पूर्ति मंच द्वारा घनाक्षरी छन्द पर आयोजित चौथी समस्या पूर्ति के इस छठे चक्र में आज हम उन को पढ़ते हैं जो कई वर्षों से अन्तर्जाल पर छन्दों को ले कर सघन और सतत प्रयास कर रहे हैं|


लाख़ मतभेद रहें, पर मनभेद न हों,
भाई को हमेशा गले हँस के लगाइए|

लात मार दूर करें, दशमुख सा -अनुज,
दुश्मन को न्योत घर, कभी भी न लाइए|

भाई नहीं दुश्मन जो, इंच भर भूमि न दें,
नारि-अपमान कर, नाश न बुलाइए|

छल-छद्म, दाँव-पेंच, द्वंद-फंद अपना के
राज नीति का अखाड़ा घर न बनाइये||

[सलिल जी का छन्द और शब्दों की कारीगरी न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता| 'इंच भर भूमि'
और 'दशमुख सा अनुज' को इंगित कर के आपने 'राजनीति का अखाड़ा' वाली इस
पंक्ति को महाभारत तथा 'रामायण' काल की घटनाओं से जोड़ दिया है]



जिसका जो जोड़ीदार, करे उसे वही प्यार,
कभी फूल कभी खार, मन-मन भाया है|

पास आये सुख मिले, दूर जाये दुःख मिले,
साथ रहे पूर्ण करे, जिया हरषाया है|

चाह-वाह-आह-दाह, नेह नदिया अथाह,
कल-कल हो प्रवाह, डूबा-उतराया है|

गर्दभ कहे गधी से, आँख मूँद - कर - जोड़,
देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||

[क्षृंगार रस में हास्य रस का तड़का, क्या बात है आचार्य जी| चाह, वाह, दाह, आह, अथाह.
प्रवाह जैसे शब्दों से आपने इस छन्द को जो अलंकृत किया है, भई वाह|
'आँख मूँद - कर - जोड़' वाला प्रयोग भी जबर्दस्त रहा]



शहनाई गूँज रही, नाच रहा मन मोर,
जल्दी से हल्दी लेकर, करी मनुहार है|

आकुल हैं-व्याकुल हैं, दोनों एक-दूजे बिन,
नया-नया प्रेम रंग, शीश पे सवार है|

चन्द्रमुखी, सूर्यमुखी, ज्वालामुखी रूप धरे,
सासू की समधन पे, जग बलिहार है|

गेंद जैसा या है ढोल, बन्ना तो है अनमोल,
बन्नो का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है||

[हास्य रस के साथ साथ इस छन्द में अनुप्रास अलंकार की छटा देखते ही बनती है| इस के सिवाय 'माँ' शब्द का एक नया पर्यायवाची शब्द भी पढ़ने में आया है इस छन्द में - 'सासू की समधन']


ये तो सब जानते हैं, जान के न मानते हैं,
जग है असार पर, सार बिन चले ना|

मायका सभी को लगे - भला, किन्तु ये है सच,
काम किसी का भी, ससुरार बिन चले ना|

मनुहार इनकार, इकरार इज़हार,
भुजहार, अभिसार, प्यार बिन चले ना|

रागी हो, विरागी हो या हतभागी बड़भागी,
दुनिया में काम कभी, 'नार' बिन चले ना||

[श्लेष अलंकार वाली इस विशेष पंक्ति पर आप के द्वारा 'नार' शब्द के तीन अर्थ लिए गये हैं -
ज्ञान-पानी और स्त्री| आचार्य जी के ज्ञान के बारे में क्या कहा जाए, हम सभी जानते हैं|
इस विशेष पंक्ति वाले विशेष छन्द में आप ने अनुप्रास अलंकार
की जो जादूगरी की है, देखते ही बनती है]


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खुद हमें भी पता नहीं था कि अब तक कुल जमा २८ कवि / कवियत्री इस मंच की शोभा बन चुके हैं| कल गिना तो मालुम पड़ा| आज के दौर में, 'छन्द साहित्य' जैसे कम रुचिकर विषय पर, जुम्मा जुम्मा ६ महीनों के अल्प काल में २८ कवि / कवियत्री, ३३ चौपाइयाँ, १०६ दोहे, ३६ कुण्डलिया और अब तक २० घनाक्षरी छन्दों के अलावा ४२००+ हिट्स के साथ आप लोगों ने जो चमत्कार किया है - उस की प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मिल रहे| ये आप लोगों के सक्रिय सहयोग के कारण ही सम्भव हुआ है|

हमारे जो साथी किसी कारण वश वर्तमान में हम से दूर हैं, हम दिल से उन का आभार प्रकट करते हैं| मसलन, हमें याद है - इस मंच की सब से पहली प्रस्तुति - जब कंचन बनारसी भाई उर्फ उमा शंकर चतुर्वेदी जी द्वारा दी गई, तो मंच ने किस अंदाज़ में खुशी मनाई थी| कंचन बनारसी भाई, यह मंच आप का सदैव आभारी रहेगा| जिन लोगों ने समय समय पर मंच का मार्गदर्शन किया, उन के लिए भी मंच कृतज्ञ है| आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप लोग इस मंच को नित नई ऊँचाइयाँ प्रदान करने में सदैव आगे रहेंगे|

अगली पोस्ट में पढ़ते हैं विशेष पंक्ति वाले छन्द पर जादू करने वाले अगले जादूगर धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन 'को|

जय माँ शारदे!

17 जून 2011

छंदों में मात्रा की गिनती - गण प्रकार और उनकी गणना


छंदों में मात्रा की गिनती


*अ इ उ क पि तु ------------------की एक [1] मात्रा


*आ ई ऊ ए ऐ ओ औ अं अः का पी तू को-----------की दो [2] मात्रा




*सत्य में 'स' की 1 आधे 'त' की 1 और 'य' की भी एक मात्रा = कुल मात्रा 3


*अंत में 'अं' की 2 और 'त' की 1 मात्रा = कुल मात्रा 3


*समर्पण में 'स' की 1 'म+र' की 2 'प' की 1 और 'ण' की 1 मात्रा = कुल मात्रा 5


*अतः में 'अ' की 1 और 'तः' की 2 मात्रा = कुल मात्रा 3


*रास्ता में 'रा' की 2 आधे 'स' की कोई नहीं और 'ता' की 2 मात्रा = कुल 4 मात्रा|
परंतु यदि इसी 'रास्ता' को 'रासता' की तरह बोला / लिखा जाये तो बीच वाले 'स' की 1 मात्रा जोड़ कर कुल 5 मात्रा|
सामान्यतः इस से बचा जाता है|



छंदों में गण प्रकार और उनकी गणना

सूत्र :- य मा ता रा ज भा न स ल गा

गण 1 = 'य'गण = य मा ता = लघु गुरु गुरु = 1 2 2

गण 2 = 'म'गण = मा ता रा = गुरु गुरु गुरु = 2 2 2

गण 3 = 'त'गण = ता रा ज = गुरु गुरु लघु = 2 2 1

गण 4 = 'र'गण = रा ज भा = गुरु लघु गुरु = 2 1 2

गण 5 = 'ज'गण = ज भा न = लघु गुरु लघु = 1 2 1

गण 6 = 'भ'गण = भा न स = गुरु लघु लघु = 2 1 1

गण 7 = 'न'गण = न स ल = लघु लघु लघु = 1 1 1

गण 8 = 'स'गण = स ल गा = लघु लघु गुरु = 1 1 2

'ल' का लतलब लघु यानि 1 मात्रा

'गा' का मतलब गुरु यानि 2 मात्रा

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - मैंने कहा पति हूँ मैं, कोई चपड़ासी नहीं

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन


आप लोगों के सक्रिय सहयोग के कारण अब इस घनाक्षरी वाले आयोजन में विशेष पंक्ति पर कम से कम 4 प्रस्तुतियों के साथ 14 से अधिक सरस्वती पुत्रों / पुत्रियों के छन्द पढ़ने का अवसर मिलना तय है| मंच आगे भी प्रयास करता रहेगा ताकि रचनाधर्मी अपना सर्वोत्तम लोकार्पित करें| आज की पोस्ट में हम मिलते हैं तीन नए सदस्यों से|




चितचोर बना मोर, पंख फैला थिरकता
रंगों की छटा बिखेर, मन में समाया है |


तेरा ये मधुर स्वर ,कानों में गूंजती धुन
जब स्वर पास आया, और पास लाया है|


अदभुत रूप तेरा, आकर्षित करता है
अपने जादू से तूने सबको लुभाया है|


मृदु मुसकान भरी, ऐसी प्यारी छवि तेरी
देख तेरी सुंदरता, चाँद भी लजाया है||

[आदरणीया निर्मला जी के लिए प्रयुक्त करने वाले शब्द ही इनके लिए भी प्रयुक्त
करूंगा - आशा जी आप ने इस उम्र में घनाक्षरी सीखने का जो बीड़ा उठाया
उस के लिए आप के जीवट को प्रणाम| सच सीखने की कोई भी उम्र नहीं
होती| चितचोर बना मोर ............. अदभुत रूप तेरा............
मृदु मुसकान ............. वाह क्या शब्द संयोजन किए हैं
आपने, वाह, आनंद आ गया|]









राग से ही राज आवे, रार को ना राम भावे
सार सार बात यही, खार को मिटाइए।
पत्‍नी को जलाए पति, रति में ही गति रहे
यति कैसे घर आए, मति को जगाइए।
बहु बोले सास अब, बेटे से तो आस नहीं
मैं तो चली काम पर, घर को सम्‍भालिए।
भाई भाई लड़ रहे, राई राई बंट रहे
राज‍नीति का अखाड़ा, घर ना बनाइए।

[कमाल है अजित जी पहली बार में ही इतना सुंदर छन्द| भाई लोग सँभल जाइए,
अब बहनें आ गई हैं ज़ोर शोर से| अजित जी, 'रति-गति-मति' में आपने
अनुप्रास का बहुत ही सुंदर प्रयोग किया है| इस के अलावा, बेटे से तो
आस नहीं - ऐसी पंक्ति कोई नारी शक्ति ही ला सकती थी|
सुंदर नहीं - बहुत सुंदर छन्द|]








सुबह के आठ बजे, बीवी की आवाज़ सुनी,
गर साँस ले रहे तो, अब उठ जाइए.

नौकर की छुट्टी आज, झाड़ू पोंछे जैसे काज,
मुझको आवे है लाज, आप निपटाइए,

मैंने कहा पति हूँ मैं, कोई चपड़ासी नहीं,
आप ऐसा मुझपे न, हुकम चलाइए.

सुबह उठते ही क्यों, बेलन दिखाती मुझे,
राजनीति का अखाड़ा, घर ना बनाइए.

[ये हमारे फेसबुक वाले मित्र हैं| पैरोडियों के माध्यम से लोगों को अक्सर गुदगुदाते
रहते हैं| उसी क्रम में इन्होंने, नीतिगत वाली पंक्ति पर हास्य प्रस्तुति दे दी है| क्या
करें भाई, भाभीजी के बेलन जी का चमत्कार जो है| इन्होंने औडियो क्लिप भी
भेजी थी, पर वो मुझसे अपलोड नहीं हो पायी| आइये हम इन के दुख में इन
को ढाढ़स बँधाते हैं, बाकी और क्या कर सकते हैं हम और आप :) ]


आज की इस पोस्ट से दो बातें सिद्ध हुईं, पहली तो ये कि यदि हम बहाने बनाना छोड़ कर कुछ करने की ठानें तो अवश्य कर सकते हैं और दूसरी ये कि घनाक्षरी [कवित्त] वाकई ऐसा जादुई छन्द है जो जाने अनजाने में अनुप्रास अलंकार ले ही आता है|

आइये हम सभी मंच पर इन तीनों सदस्यों का स्वागत और उत्साह वर्धन करें|

अब लगता है हफ्ते में दो से ज्यादा पोस्ट्स लगानी चाहिए| फिर मिलते हैं, जल्द ही अगली पोस्ट के साथ|


जय माँ शारदे!

15 जून 2011

तुफ़ैल चतुर्वेदी जी की गज़लें


tufail chaturvedi
हुआ जिसका भरोसा भी नहीं था|
कि वो उभरा – जो तैरा भी नहीं था|१|

महब्बत इम्तेहा लेती है ऐसे|
वो ही चुप था – जो गूँगा भी नहीं था|२|

शहंशाहों से यारी थी हमारी|
भले ही पास ढेला भी नहीं था|३|

बुराई जिस तरह मेरी हुई है|
मियाँ, मैं ऐसा अच्छा भी नहीं था|४|

ज़रूरत पेश आती दुश्मनी की|
तअल्लुक़ इतना गहरा भी नहीं था|५|

मैं सदियाँ छीन लाया वक़्त तुझसे|
मेरे कब्ज़े में लमहा भी नहीं था|६|

तेरी हालत बदल पाती तो कैसे|
कि जब आँखों में सपना भी नहीं था|७|





धीरे धीरे अश्क़ तो कम हो जाएंगे|
लेकिन दिल पर ज़ख्म रक़म हो जाएंगे|१|

दीवाने की पलकें खुलने मत देना|
सहरा तेरे बंजर नम हो जाएंगे|२|

मेरे पैरों में चुभ जाएंगे लेकिन|
इस रस्ते से काँटे कम हो जाएंगे|३|

उसकी याद का झोंका आने वाला है|
ये जलते लम्हे शबनम हो जाएंगे|४|

हम थक कर बैठेंगे उस की चौखट पर|
सारे राही तेज़ क़दम हो जाएंगे|५|

सूखती जाती है तेरी यादों की झील|
पंछी ग़ज़ल के आने कम हो जाएंगे|६|

दुनियादारी ताक़ पे रखने का जी है|
घर में रह कर हम गौतम हो जाएंगे|७|






दिलों के ज़हर को शाइस्तगी ने काट दिया|
अँधेरा था तो घना – चाँदनी ने काट दिया|१|

बड़ा तवील सफ़र था हयात का लेकिन|
ये रास्ता मेरी आवारगी ने काट दिया|२|

हमें हमारे उसूलों से चोट पहुँची है|
हमारा हाथ हमारी छुरी ने काट दिया|३|

तुम अगले जन्म में मिलने की बात करते हो|
ये रास्ता जो मेरी ख़ुदकुशी ने काट दिया|४|

खमोशियों से तअल्लुक़ की डोर टूट गयी|
पुराना रिश्ता तेरी बेरुख़ी ने काट दिया|५|

ज़िगर के टुकड़े मेरे आँसुओं में आने लगे|
बहाव तेज़ था, पुश्ता नदी ने काट दिया|६|
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जिस जगह पत्थर लगे थे, रंग नीला कर दिया|
अब के रुत ने मेरा बासी ज़िस्म ताज़ा कर दिया|१|

आईने में अपनी सूरत भी न पहिचानी गई|
आँसुओ ने आँख का हर अक़्स धुंधला कर दिया|२|

उस की ख़्वाहिश में तुम्हारा सिर है, तुम को इल्म था|
अपनी मंज़ूरी भी दे दी, तुमने ये क्या कर दिया|३|

उस के वादे के इवज़ दे डाली अपनी ज़िंदगी|
एक सस्ती शय का ऊंचे भाव सौदा कर दिया|४|

कल वो हँसता था मेरी हालत पे, अब हँसता हूँ मैं|
वक़्त ने उस शख़्स का चेहरा भी सेहरा कर दिया|५|

था तो नामुमकिन तेरे बिन मेरी साँसों का सफ़र|
फिर भी मैं ज़िंदा हूँ, मैंने तेरा कहना कर दिया|६|

हम तो समझे थे कि अब अश्क़ों की किश्तें चुक गईं|
रात इक तस्वीर ने फिर से तक़ाज़ा कर दिया|७|
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आहट हमारी सुन के वो खिड़की में आ गये|
अब तो ग़ज़ल के शेर असीरी में आ गये|१|

साहिल पे दुश्मनों ने लगाई थी ऐसी आग|
हम बदहवास डूबती कश्ती में आ गये|२|

अच्छा दहेज दे न सका मैं, बस इसलिए|
दुनिया में जितने ऐब थे, बेटी में आ गये|३|

हम तो समझ रहे थे ज़माने को क्या ख़बर|
किरदार अपने, देख – कहानी में आ गये|४|

तुमने कहा था आओगे – जब आयेगी बहार|
देखो तो कितने फूल चमेली में आ गये|५|

उस की गली को छोड़ के ये फ़ायदा हुआ|
ग़ालिब, फ़िराक़, जोश की बस्ती में आ गये|६|

हम राख़ हो चुके हैं, तुझे भी जता तो दें|
बस इस ख़याल से तेरी शादी में आ गये|६|

हाँ इस ग़ज़ल में उन के ख़यालात नज़्म हैं|
इस बार बादशाह – ग़ुलामी में आ गये|७|
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वरक़-वरक़ पे उजाला उतार आया हूँ|
ग़ज़ल में मीर का लहज़ा उतार आया हूँ|१|

बरहना हाथ से तलवार रोक दी मैंने|
मैं शाहज़ादे का नश्शा उतार आया हूँ|२|

समझ रहे थे सभी, मौत से डरूँगा मैं|
मैं सारे शहर का चेहरा उतार आया हूँ|३|

मुक़ाबिले में वो ही शख़्स सामने है मेरे|
मैं जिस की ज़ान का सौदा उतार आया हूँ|४|

उतारती थी मुझे तू निगाह से दुनिया|
तुझे निगाह से दुनिया उतार आया हूँ|५|

ग़ज़ल में नज़्म किया आंसुओं को चुन-चुन कर|
चढ़ा हुआ था, वो दरिया उतार आया हूँ|६|

तेरे बगैर कहाँ तक ये वज़्न उठ पाता|
मैं अपने चेहरे से हँसना उतार आया हूँ|७|
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अदालतें हैं मुक़ाबिल - तो फिर गवाही क्या|
सज़ा मिलेगी मुझे – मेरी बेगुनाही क्या|१|

मेरे मिज़ाज़ में शक़ बस गया मेरे दुश्मन|
अब इस के बाद मेरे घर की है तबाही क्या|२|

हर एक बौना मेरे क़द को नापता है यहाँ|
मैं सारे शहर से उलझूँ मेरे इलाही क्या|३|

समय के एक तमाचे की देर है प्यारे|
मेरी फ़क़ीरी भी क्या – तेरी बादशाही क्या|४|

तमाम शहर के ख़्वाबों में क्यों अँधेरा है|
बरस रही है – घटाओ! कहीं – सियाही क्या|५|

मेरे खिलाफ़ मेरे सारे काम जाते हैं|
तू मेरे साथ नहीं है, मेरे इलाही क्या|६|

बस अपने ज़ख्म से खिलवाड़ थे हमारे शेर|
हमारे जैसे क़लमकार ने लिखा ही क्या|७|
=====




पल पल सफ़र की बात करें आज ही तमाम|
मंज़िल क़रीब आई, हुई ज़िंदगी तमाम|१|

पौ क्या फटी, कि शब के मुसाफिर हुए विदा|
पीपल की छाँव तुझसे हुई दोस्ती तमाम|२|

पिछली सफ़ों के लोग जलाएं लहू से दीप|
मैं चुक गया हूँ, मेरी हुई रोशनी तमाम|३|

बस उस गली में जा के सिसकना रहा है याद|
उसकी तलब में छूट गयी सरकशी तमाम|४|

कुछ था कि जिस से ज़ख्म हमेशा हरा रहा|
बेचैनियों के साथ कटी ज़िंदगी तमाम|५|

ये और बात – प्यास से दीवाना मर गया|
लेकिन किसी तरह तो हुई तश्नगी तमाम|६|
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धूप होते हुए बादल नहीं मांगा करते|
हम से पागल, तेरा आँचल, नहीं माँगा करते|१|

हम फ़कीरों को ये गठरी, ये चटाई है बहुत|
हम कभी शाहों से मखमल नहीं माँगा करते|२|

छीन लो, वरना न कुछ होगा निदामत के सिवा|
प्यास के राज में, छागल नहीं माँगा करते|३|

हम बुजुर्गों की रिवायत से जुड़े हैं भाई|
नेकियाँ कर के कभी फल नहीं माँगा करते|४|

देना चाहे तू अगर, दे हमें दीदार की भीख|
और कुछ भी – तेरे पागल नहीं माँगा करते|५|

आज के दौर से उम्मीदेवफ़ा! होश में हो?
यार, अंधों से तो काजल नहीं माँगा करते|६|
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गुबार दिल से पुराना नहीं निकलता है|
कोई भी सुलह का रस्ता नहीं निकलता है|१|

उठाए फिरते हैं सर पर सियासी लोगों को|
अगरचे, काम किसी का नहीं निकलता है|२|

लड़ाई कीजिये, लेकिन, जरा सलीक़े से|
शरीफ़ लोगों में जूता नहीं निकलता है|३|

तेरे ही वास्ते आँसू बहाये हैं हमने|
सभी का हम पे ये क़र्ज़ा नहीं निकलता है|४|

जो चटनी रोटी पे जी पाओ, तब तो आओ तुम|
कि मेरे खेत से सोना नहीं निकलता है|५|

ये सुन रहा हूँ कि तूने भुला दिया मुझको|
वफ़ा का रंग तो कच्चा नहीं निकलता है|६|
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अश्क़ों से आँखों का पर्दा टूट गया|
इश्क़ का आखिर कच्चा धागा टूट गया|१|

बेटे की अर्थी चुपचाप उठा तो ली|
अंदर अंदर लेकिन बूढ़ा टूट गया|२|

सोचा था सच की ख़ातिर जाँ दे दूँगा|
मेरा मुझसे आज भरोसा टूट गया|३|

पर्वत की बाँहों में जोश अलग ही था|
मैदानों में आ कर दरिया टूट गया|४|

नई बहू से इतनी तबदीली आई|
भाई का भाई से रिश्ता टूट गया|५|
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प्यार किया है तो मर जाना थोड़ी है|
दीवाना – इतना दीवाना थोड़ी है|१|

आँखों से धोका मत खा जाना, इन में|
तू भी है – खाली वीराना थोड़ी है|२|

तनहा दिल आखिर दुनिया से हार गया|
लेकिन वो दुनिया की माना थोड़ी है|३|

टूटे रिश्ते पर रोना-धोना कर बंद|
उस को अब की बार मनाना थोड़ी है|४|

शुहरत की ऊँचाई पर इतराता है|
पर्वत से वादी में आना थोड़ी है|५|

हम तुम कागज़ पर सदियों साँसें लेंगे|
लफ़्ज़ों का जादू मर जाना थोड़ी है|६|
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हवा को रुख बदलना चाहिए था|
दिया मेरा भी जलना चाहिए था|१|

डुबोया आँसुओं में सारा जीवन|
समंदर से निकलना चाहिए था|२|

पड़े हो रास्ते पर खाक ओढ़े|
हवा के साथ चलना चाहिए था|३|

पिघल उठ्ठी थी तारीकी फ़जा की|
हमें कुछ और जलना चाहिए था|४|

जरूरी था सभी के साथ रहते|
जरा सा बच के चलना चाहिए था|५|

अँधेरा आदतन करता है साज़िश|
मगर सूरज निकलना चाहिए था|६|

तुम्हारी बात बिलकुल ठीक थी बस|
तुम्हें लहज़ा बदलना चाहिए था|७|
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नहीं झोंका कोई भी ताज़गी का|
तो फिर क्या फायदा इस शायरी का|१|

बहुत दिन तक नहीं बहते हैं आँसू|
वो दरिया हो गया सहरा कभी का|२|

किसी ने ज़िंदगी बरबाद कर दी|
मगर अब नाम क्या लीजै किसी का|३|

महब्बत में ये किसने ज़हर घोला|
बहुत मीठा था पानी इस नदी का|४|

तेरी तस्वीर पर आँसू नहीं हैं|
मगर धब्बा नहीं जता नमी का|५|

वही जो मुस्कुराता फिर रहा है|
उदासी ढूँढती है घर उसी का|६|

वो रिश्ता तोड़ने के मूड में है|
मियाँ पत्ता चलो अब ख़ुदकुशी का|७|

सिमट आए फिर इक दिन ज़ात में हम|
बहुत दिन दुख सहा ज़िंदादिली का|८|

किसी दिन हाथ धो बैठोगे हमसे|
तुम्हें चस्का बहुत है बेरुख़ी का|९|
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[ये १५ गज़लें उपलब्ध कराने के लिए, भाई विकास शर्मा 'राज़' जी का बहुत बहुत आभार]