4 मार्च 2011

मैं नहाया आंसुओं में, रात फिसली जा रही थी,



मैं नहाया आंसुओं में, रात फिसली जा रही थी|
पर्वतों पर जो जमीं थी बर्फ पिघली जा रही थी|
क्यों मुझे इतना नहाना ,इस तरह अच्छा लगा था|
बात तेरी चल रही थी , जान निकली जा रही थी|१|

शब्द के कतरे पिरोकर ,वेदना जब गुनगुनाई|
बूँद अमृत की बिलोकर, बह रही थी रोशनाई|
प्रीत का व्यापार कितने युग अनंतों तक चलेगा|
व्योम में छिटकी हुई -सी एक बदली जा रही थी|२|

द्रश्य चेतन, ओ, अचेतन ,इस तरह क्यों खींचते हैं|
प्रियतमा के बिम्ब अक्सर, आत्मा में दीखते हैं|
मैं नहाया डूबकर जब, फ़क्त इतना याद आया|
रेत की सूखी सतह पर ,मीन, उछली जा रही थी|३|

तुषार देवेन्द्र चौधरी

2 टिप्‍पणियां:

  1. शब्द के कतरे पिरोकर ,वेदना जब गुनगुनाई|
    बूँद अमृत की बिलोकर, बह रही थी रोशनाई|
    सच मे तुषार जी ने शब्दों के कतरों से ही सागर बना दिया । पूरी रचना दिल से अच्छी लगी बस शब्द नही कुछ कह सकूँ। उन्हें बधाई।

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  2. jab man sapne dekha karta hai kachchi umra me tab..umangon bhare man ko meet milne ka anokha gudgudane wala ehsaas...bathhroom ke nal ka paani bhi to khatm nahi hota tab..........bahut pyari sukomal rachana...

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