26 फ़रवरी 2011

औरतें


ये औरतें हर जगह दीख जाती हैं
जब एक पत्ता फूटता है
हल्का बैंगनी-हरा
कोमल अधरों पर सुबह की मुसकान सहेजता
तब एक छोटी बच्ची औरत बनकर
गुड़ियों में बना रही होती है घर
संभाल रही होती है
खिलौनों के बर्तन
जिसमें कांच के रेशों -सा
खिंचने लगता है उसका वज़ूद.
जब कुछ मोगरे अपने सफ़ेद मुख पर
पोत लेते हैं खुशबू
और गुलाब रंग लेता है ओंठ लाल
तब एक कौमार्य औरत बनकर
ठेल रहा होता है अपना बदन
जैसे कछुआ समेटता है
हाथ-पैर कड़े खोल में
मोटा कपड़ा भी पारदर्शी हो जाता है
और किसी झिझक में
बंद कर रही होती है झरोखे , खिड़कियाँ
तब वह सिल रही होती है घर के परदे
जिसकी सीवनों में
सिल जाती है उसकी बखिया
कई तुरपने, काज , कसीदे ..
किसी सिंड्रेला के जूते छूट जाते हैं बॉल डांस में
और एक जूता लिए करती है इंतज़ार
पर महल कोई घसीट कर ले जाता है तहखाने में
अतीत की सभ्यताएँ
नदी किनारे यूं ही बिखरी रहती हैं
जिस पर लहरों की चादर चलती है
एक पर एक कई
और तलौंछ में सोई होती है जलपरी
आधी मछली ..
उसकी भौहें कितनी घनी हो जाती हैं
जैसे गरम भाप से नहाकर आता है बादल
उसकी बरौनियों पर बिजली टूटती है
रह-रहकर .. सिहरकर
और जंगल भीगते रहते हैं
पहाड़ों , मैदानों पर
तब वह किसी बेडौल गागर -सी
भर रही होती है जल
तुम्हारी क्षुधा की कितनी परवाह है उसे ..
पता नहीं किस बुढ़ापे तक
उसे ऐसे ही दीखना है
दरवेश रेत उड़ती रहती है
और फ़ैल जाते हैं सहारा के बदोइन
जिप्सी , थार के गाड़लिए ..
रेत की झुर्रियों में
कई हवाएं बंद हैं शायद !

11 टिप्‍पणियां:

  1. खूबसूरत कविता।
    खुली ऑंख से थोड़ा छुपता है थोड़ा सा दिखता है,
    मन की ऑंखें खोलो तो फिर जाने क्‍या-क्‍या दिखता है।

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  2. तब एक छोटी बच्ची औरत बनकर
    गुड़ियों में बना रही होती है घर
    संभाल रही होती है
    खिलौनों के बर्तन
    जिसमें कांच के रेशों -सा
    खिंचने लगता है उसका वज़ूद.....आप के शब्द वैसे भी भीनी वर्षा के रूप में आतें है ...उस मिटटी को गिला कर देतें है ...फिर उस को अलग अलग रूप दिया करतें है यहाँ भी वही ...ओरत का रूप लिया है कही ....अपनी सुन्दर मूर्ति बनाती हुई सुन्दर शब्दों में विवाचन ....एक बार पुन पढवाने का सदर धन्यवाद् !!Nirmal Paneri

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  3. एक औरत को इतने विस्तृत रूप से परिचित कराना जिसमें कोमलता भी रहे साथ ही माँगें/मुमूर्षाएँ भी , कम देखने को मिलता है ! आभार !

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  4. बहुत सुन्दर रचना ! स्त्री को बहुत करीब से
    देखती,परखती ,तौलती !

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  5. बहुत सुंदर कविता, अपर्णा जी को बहुत बहुत बधाई।

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  6. पता नहीं किस बुढ़ापे तक

    उसे ऐसे ही दीखना है
    नारी जीवन के हर एहसास को समेटे हुये सुन्दर रचना
    बधाई।

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  7. अपर्णा भटनागर की बेहतरीन भावपूर्ण रचना को प्रस्तुत करने के लिये.... हार्दिक धन्यवाद ।

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